शनिवार, 24 दिसंबर 2011

मैं जीसस हूँ,माता मरियम का यश, उज्जवल

25 दिसंबर
 १ .
 मैं जीसस हूँ,माता मरियम का यश उज्ज्वल
मैं,ईश्वर का प्रिय-पुत्र,धरा  की कीर्ति अमल

 मुझसे   निःसृत होती  करूणा की   परिभाषा
मिटते जीवन  को मिल  जाती मुझसे आशा

है  शूल-विद्ध   मेरा  शरीर ,  बह रहा रक्त
पर, मैं हूँ शुद्ध,बुद्ध आत्मा,शाश्वत विरक्त 
२.


मैं, मेरी मैडगलिन  के अंतर्मन  का स्वर
मैं ,मानवता की महिमा का मूर्तन,भास्वर


मैं रक्त-स्नात करूणा से ज्योतित  क्षमा-मूर्ति
मैं   क्रूर  आततायी  की  हूँ   कामना-पूर्ति


मैं   अपरिसीम ,अव्यक्त वेदना का समुद्र
मुझमें मिलकर अनंत बन जाता,क्षणिक,क्षुद्र 


==============
आज भी,
 यदि कोई,  किसी को शूली पर चढ़ा दे, 
शूल की भयानक वेदना से वह व्यक्ति तड़प रहा हो,
रक्त बहता जा रहा हो,
बेहोशी छाती जा रही हो,
और ऐसे में ,ऐसा व्यक्ति 
शूली पर चढाने वाले के लिए अपने पिता 
परमेश्वर से प्रार्थना करे कि -


'' हे पिता ! इन्हें क्षमा करना क्योकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं..''


तब,
 ऐसे व्यक्ति को,


 आज भी सारा विश्व


 ईश्वर का पुत्र 


कह कर पुकारेगा.


जीसस क्राइस्ट ईश्वर के पुत्र थे !


माता मरियम ,


जीसस 


और 


मेरी मैडगलिन 


को 


नमन 


----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

तो फिर कुछ बात होगी.



तुम आये साथ जो मौसम के तो आना भी क्या आना.
बिना  मौसम  अगर आओ  तो फिर  कुछ बात होगी.
अगर  , बूंदों  को  मुझसे  है  मुहब्बत  तो   मेरे   घर,
बिना  मौसम, मेरी  खातिर ही ,  बस,  बरसात होगी.


जब श्री प्रह्लाद जी ऩे कहा कि श्री हरि सर्वत्र हैं तब भीषण क्रोध के आवेश में हिरण्यकशिपु  ऩे सामने दिखाई दे रहे एक विशाल खम्भे को दिखाकर पूछा , '' अच्छा, क्या इसमें भी तेरा हरि है ?? 
प्रह्लाद जी ऩे कहा , '' हाँ , इसमें भी वे श्री हरि निवास करते हैं..'' 
इतना सुनते ही मृत्यु के वशीभूत उस महाराक्षस ऩे अपने खड्ग से उस खम्भे पर प्रहार किया .. 
श्री मद्भागवत में वर्णित है कि -- प्रहलाद के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिए श्री हरि उस खम्भे से नृसिंह रूप में प्रकट हो गए.................'' 
जिन लोगो ऩे श्रीमद्भागवत का पाठ एवं मनन नहीं किया , मेरी दृष्टि में, वे एक विलक्षण असीम , अनंत आनंद के भोग से वंचित हैं...  
इन चार पंक्तियों में उसी महाभाव को प्रकट किया गया है कि जब, जहाँ जो नहीं है , वह , वहाँ भी प्रकट हो सकता है यदि दर्शक और दृश्य में अनन्य सम्बन्ध हो .. यदि यह नहीं तो दृश्य , अपनी प्रकृति अर्थात अपने स्वार्थ के अनुसार ही दर्शक के समक्ष प्रकट होता है और दर्शक को भ्रम होता है कि वह दृश्य , उसके लिए प्रकट हुआ.. संसार में यही दिखाई देता है .. सूर्य , चन्द्र, तारक, पुष्प, फल, आदि अपनी प्रकृति के वशीभूत उदय-अस्त , प्रफुल्ल-शुष्क हो रहे किन्तु .. मनुष्य-मनुष्य के बीच सारे सम्बन्ध इसी प्रकृति के हैं ..किन्तु , मोह और अज्ञानवश प्रेम , स्नेह  का भ्रम होता है... 
स्वामी विवेकानंद ऩे माया की व्याख्या करते हुए कहा -- पुत्र, माता  का अपमान करता है, किन्तु माता  , पुत्र के प्रति स्नेह ही रखती है,, यही माया है.......,

-- अरविंद पाण्डेय 

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

श्री राधा के कर में शोभित..



श्री राधा के कर में शोभित ,
मोहक दर्पण का प्याला.

उसमें सजती केशव की छवि
आज बन गई है हाला.

आँखों से, बस, धीरे धीरे,
नील-वर्ण मधु पीती हैं,

महारास की निशा , धरा पर
उतर , बन गई मधुशाला.

-- अरविंद पाण्डेय 

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

कभी खाब में बोल उठा मैं ..


कभी मुझे पंडित ऩे समझा,
मैं , मंदिर जाने वाला. 

कभी मौलवी का गुमान था ,
मैं , कुरान पढ़ने वाला.

कभी खाब में बोल उठा मैं 
अल्लाहुम , गोविन्द कभी,

सभी तरह की मदिरा से 
महकी है, मेरी  मधुशाला.

-- अरविंद पाण्डेय 

मेरे घर का छोटा आँगन


हरसिंगार,रजनीगंधा के 
वृक्ष बने हैं मधुबाला .

मृदु-समाधि में धीरे धीरे,
ले जाती सुगंध-हाला .

कभी किसी के द्वार न जाता ,
मैं मधुरिम मधु पीने को,

मेरे घर का छोटा आँगन
ही है मेरी मधुशाला.

-- अरविंद पाण्डेय 

सोमवार, 28 नवंबर 2011

मेरी खुद की मधुशाला


नहीं बनाया कभी किसी ने,
अपनी मर्जी की हाला.

अपना कह कर सभी पी रहे,
किसी दूसरे का प्याला.

किन्तु, हाथ में मेरे, जो तुम 
देख रहे हो चषक नया,

उसे भेजती, हर दिन, मुझ तक,
मेरी खुद की मधुशाला.

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चषक = प्याला 

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ऋषयो मन्त्र द्रष्टारः  

उपनिषद् कहते हैं की ऋषियों ने मन्त्रों का दर्शन किया , उन्हें लिखा या उनकी रचना नहीं की जैसे कवी या लेखक करते हैं.. यह व्यवहार में भी देखा जाता है  कि जो जिस कवि या लेखक में अनुभूति जितनी ही गहन होती है उसकी कविता या साहित्य उतना ही प्रभाव उत्पन्न करता है .. 
सदा से ही अधिकांश धर्म के प्रवाचकों में स्वयं के अनुभव का अभाव रहता है.. वे किसी तथाकथित गुरु या सम्प्रदाय के ग्रंथों को पढ़कर या याद करके उसे ही लोगो को सुनाया करते हैं और लोग उनका अनुकरण करना प्रारम्भ कर देते हैं .. 
मेरी उपर्युक्त कविता इसी भाव को प्रस्तुत करती है...

मानो '' हाला '' वह अनुभूति है जो किसी साधना से साधक को प्राप्त होती है..
 '' किसी दूसरे का प्याला '' का अर्थ दूसरे संत द्वारा अनुभव किया गया ज्ञान .. 
अधिकांश कथित संत या धर्म-प्रवक्ता किसी दूसरे के अनुभव को ही बताते हैं... 
'' मेरी खुद की मधुशाला '' मेरी आत्मा , मेरा अपना अनुभविता .. 
जो मैं स्वयं हूँ.. 

सोऽहं ! 
सोऽहं ! 
सोऽहं ! 

-- अरविंद पाण्डेय 

रविवार, 27 नवंबर 2011

अब मेरी है मधुशाला ..

२७ नवम्बर 

पान किया जब छक कर मैंने ,
बच्चन की यह मृदु हाला.

बुझा ह्रदय का ताप, बन गया ,
मैं भी मधु का मतवाला .

अब तो जग को भूल, मग्न हूँ,
मैं ,मय के मृदु सागर में,

और किसी की नहीं विश्व में,
अब मेरी है मधु शाला. 

आज श्री हरिवंश राय बच्चन के जन्म दिवस पर, मैं अपने द्वारा १५ वर्ष की उम्र में लिखे गए  उस छंद को प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मैंने अपने पिता जी द्वारा दी गई  '' मधुशाला '' के प्रथम पृष्ठ पर अंकित किया था.. 

--- अरविंद पाण्डेय 

शनिवार, 26 नवंबर 2011

Learn to Respect the Protectors


२६ नवम्बर 
आहत   ताज
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जीना है यदि स्वाभिमान से , 
पीना है मधुरिम हाला.

रक्षक का सम्मान सुरक्षित
 रक्खे हर पीने वाला.

जिस जिस मदिरालय में ऐसा
नहीं हुआ, तो फिर सुन लो.

भक्षक के कब्ज़े में होगी 
जल्दी ही वह मधुशाला.

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पुलिस वह रक्षक-संगठन है जो प्रतिदिन , रात-दिन ,हमारी रक्षा में तत्पर रहता  है ..अपनी लाख कमियों के बावजूद, पुलिस ही है जो ताज होटल  और ताजपोशी के सपने के साथ जी रहे लोगों की और बिना सोचे समझे ताजपोशी किसी की भी कर देने  वाले आम लोगो की रक्षा करती है.. 
हम भारत के लोगों को चाहिए कि हम अपने रक्षकों का भी सुखद जीवन सुनिश्चित करें और उन्हें सम्मान देना सीखें ..इसके लिए हमें चाहिए कि हम पश्चिम के विकसित देशों में पुलिस को दी जा रही सुविधाओं और सम्मान समतुल्य ही अपने देश में भी पुलिस को वही सुविधाएं और सम्मान दें... 

-- अरविंद पाण्डेय 

सोमवार, 21 नवंबर 2011

Mere Mehboob Tere Dam Se Aravind Pandey Sings Rafi .wmv




मेरे सुर जब भी मिलते हैं रफ़ी के सुर से , या अल्लाह !
तेरे रहम-ओ-करम की इस अदा से इश्क होता है.

--  अरविंद पाण्डेय 



रविवार, 20 नवंबर 2011

मनु बनी लक्ष्मी बाई..



मुख पर थी चन्द्र-कांति,हांथों में चमक रहा था चन्द्रहास.
डलहौजी का दल दहल दहल,पहुंचा झांसी के आसपास.
पर, मात खा गया महाराजरानी के अद्भुत कौशल से.
था किला मिला खाली-खाली,कुछ मिला नहीं था छल-बल से.

फिर, कौंध उठीं बिजली सी तात्या टोपे संग ग्वालियर में.
भीषण था फिर संग्राम हुआ, अँगरेज़ लगे पानी भरने.
पर,नियति-सुनिश्चित था कि राजरानी धरती का त्याग करें.
उनके रहने के योग्य धरा थी नहीं , स्वर्ग में वे विहरें.

मनु बनी लक्ष्मी बाई , पर वह थी शतरूपा सी मनोज्ञ .
आईं थी मर्त्य-धरा पर , पर थीं वे सदैव ही स्वर्ग-योग्य 


- अरविंद पाण्डेय

चन्द्रहास = तलवार .. 
मनोज्ञ = सुन्दर 

बुधवार, 16 नवंबर 2011

मेरी आवारगी की राह ले आती है वो मंजिल



मेरी आवारगी की राह ले आती है वो मंजिल .
कि जिसकी चाह में तड़पा किया करते हैं शाहंशाह.


मगर ये राह है ऐसी कि जिस पर जब कोई राही ,
अगर निकला तो वापस लौट,घर को फिर न आएगा..


-- अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

Let My Love be only for You

भीष्म पर कृपा
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Mercy on Bhishma
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रति हो कितु तुम्हीं से रति हो.
गति हो किन्तु तुम्हारे प्रति हो.
क्रोध-द्वेष भी यदि हो मुझमें,
वह भी मात्र तुम्हारे प्रति हो.

इस मिथ्या संसृति के प्रति अब ,
क्रोध-द्वेष भी नहीं, विरति हो.

Let My Love be only for You.
Let my moves be only towards You.
I will be, sometime, envious,
And angry,but only with You.

The World is not to be even angry with,
Let me be only for You and You and You.

- Aravind Pandey

सोमवार, 14 नवंबर 2011

मेरा कंठ , कृष्ण की सरगम ...

जोत से जोत जगाते चलो.
( फेसबुक लिंक )
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बचपन से श्री ज्ञानेश्वर सा.
गीत यही मैं गाता था.
खिले फूल, हंसते पेड़ों को,
देख देख मुस्काता था.

लगता जैसे कण कण से 
बस कृष्ण नाम - धुन होती है.
उन्हें पूजने को,फूलों की
माला प्रकृति पिरोती है.

वे ही देख रहे आँखों से,
बोल रहे हैं जिह्वा से.
बस, वे ही बस रहे सभी में,
सब जीवित हैं बस उनसे.

--  अरविंद  पाण्डेय  

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

देवता के चरण-कमलों पर, स्वतः ही झर रहा हूँ.



पूर्णिमा - परिरंभ से मधुरिम बनी इस यामिनी में,
आज अम्बर में, किरण बन, संतरण मैं कर रहा हूँ.
युग-युगांतर से गगन जो शून्य बन,अवसन्न सा था,
आज उसकी रिक्तता, आनंद से मैं भर रहा हूँ.


पवन-पुलकित पल्लवों के बीच हंसते कुसुम सा मैं,
देवता के चरण - कमलों पर, स्वतः ही झर रहा हूँ.
अब सहस्रों सूर्य , तारक , चन्द्र मेरे रोम में हैं,
था अभी तक रुद्ध,पर,स्वच्छंद ,अब ,मैं बह रहा हूँ.


-- अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 9 नवंबर 2011

दक्षिण काली के श्री चरणों में कोटि नमन



जिनके कराल-मुख में प्रविष्ट होकर, विनष्ट होते नक्षत्र.
जो घनीभूत स्वयमेव तमोगुण किन्तु,सृजन करतीं सर्वत्र.
जिनके करूणा-कटाक्ष से मैं हूँ आप्तकाम,निष्काम,अकाम.
उन श्री दक्षिण काली के श्री चरणों में मेरा कोटि प्रणाम.

बहुत दिनों की मेरी कामना थी कि - रामकृष्ण परमहंस के लिए जीवंत किन्तु अज्ञान से ढकी हुई आँखों के लिए प्रस्तर-मूर्ति मात्र , जगन्माता दक्षिणेश्वर कालिका का, दक्षिणेश्वर जाकर, दर्शन करूं..यह मनोकामना  पूरी हुई..

गगन-मार्ग से यात्रा के क्रम में भगवान् सविता के दर्शन के अनुभव पर कुछ पंक्तियाँ कल..


अरविंद पाण्डेय 

सोमवार, 7 नवंबर 2011

आज इस बक़रीद पर कुर्बान करता हूँ उन्हें ..




जो भी नेमत तूने  बख्शी है मुझे, मेरे खुदा.
आज इस बक़रीद पर कुर्बान करता हूँ उन्हें.
हैं सभी मुफलिस, तेरे दरबार में आए हुए.
तेरी चीज़ें ही तुझे कुर्बान कर, मदहोश हैं.

सभी मित्रों को 

आत्म-बलिदान का महापर्व 

बकरीद मुबारक. 


--- अरविंद पाण्डेय 

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

दीपावली मेरी..



 मासूम से इक दिल में कल मैंने जलाया इक चिराग.
अजब पुरनूर सी दिखती है ये दीपावली मेरी..
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राष्ट्रीय  सहारा 
२५ अक्टूबर .२०११   



--  अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

स्मित-वदन सविता, धरा पर



आज स्वर्णिम अमृत, मधुरिम,
 दान करने मुक्त मन से.
स्मित-वदन सविता, धरा पर,
उतर आए थे गगन से.

पर, यहाँ पर व्यस्त थे सब, 
स्वर्ण-मुद्रा संकलन में.
अमृत का था ध्यान किसको,
भक्ति थी श्वोभाव धन में.


=================
स्मित-वदन = जिसके चेहरे पर मुस्कान हो .
श्वोभाव = ephemeral  = अल्पकालिक -- यह शब्द कठोपनिषद में प्रयुक्त है. 
 श्वः भविष्यति न वा अर्थात जो कल रहेगा या नहीं रहेगा - यह सुनिश्चित न हो - ऐसी वस्तु 
= शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तु .



-- अरविंद पाण्डेय 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

कहना-खिंचा-खिंचा रहता है दिल,उनको कर याद..


कृष्ण-मित्र सुदामा:

कहना - श्वास श्वास में लेता हूँ उनका ही नाम.
गली-गली फिरता हूँ, मन में ही लेकर व्रज-धाम.
कहना-खिंचा-खिंचा रहता है दिल,उनको कर याद.
कहना-अब मुझको अपना लें,बस इतनी फ़रियाद...

वृदावन की यात्रा पर गए एक मित्र से सुदामा का श्री कृष्ण के लिए सन्देश :


--  अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

महारास : नौ वर्षों की आयु कृष्ण की,सजल-जलद सी काया.



१ 

एक निशा में सिमट गईं थीं   मधुमय निशा सहस्र .
एक  चन्द्र  में  समा  रहे थे अगणित  चन्द्र अजस्र.
स्वर्गंगा का सुरभि-सलिल उच्छल प्रसन्न बहता था.
सकल सृष्टि में  महारास  का  समाचार  कहता था.

२ 
शरच्चंद्रिका निर्मल-नभ का आलिंगन करती थी.
अम्बर के  विस्तीर्ण पृष्ठ पर अंग-राग भरती थी.
तारक,बनकर कुसुम,उतर आये थे मुदित धरणि पर.
प्रभा-पूर्ण थी धरा , शेष थीं किरणें नही तरणि पर.

गर्व भरी  गति से यमुना जी  मंद मंद बहतीं थीं .
मैं  भी कृष्ण-वर्ण की  हूँ - मानो सबसे कहतीं थीं.
शुभ्र चंद्रिका,कृष्ण-सलिल पर बिछी बिछी जाती थी.
कृष्णा, आलिंगन-प्रमुग्ध, आरक्त छिपी जातीं थीं.

४ 
पृथुल पुलिन पर, पारिजात,पुष्पित-वितान करता था.
पवन, उसे कम्पित कर,कुसुमास्तरण मृदुल  रचता था.
प्रकृति,परम प्रमुदित,कण-कण,क्षण-क्षण प्रसन्न हंसता था.
आज धरा पर ,  प्रतिक्षण  में  शत-कोटि  वर्ष  बसता था.

५ 
नौ वर्षों की आयु कृष्ण की, सजल जलद सी काया.
कनक-कपिश पीताम्बर, नटवर वपु की मोहक माया.
श्रीवत्सांकित  वक्ष ,  वैजयंती   धारण  करता  था. 
कर्णिकार दोनों कर्णों में श्रुति-स्वरुप सजता था.

मस्तक पर कुंचित अलकावलि पवन-केलि करती थी .
चारु-चन्द्र-कनकाभ-किरण चन्दन-चर्चा भरती थी.
चन्दन-चर्चित चरण ,सृष्टि को शरण-दान करता था.
करूणा-वरुणालय-नयनों से रस-निर्झर बहता था.

७ 
पारिजात का भाग्य, आज उसकी शीतल छाया  में.
श्री व्रजराज तनय राजित थे, निज निगूढ़ माया में.
उधर, गगन  में चारु  चंद्रिका, नवल नृत्य करती थी.
इधर, कृष्ण के मधुर अधर - पुट पर वंशी सजती थी.

८ 
महाकाल , तब  महारास के दर्शन  हेतु  पधारे .
व्रज-वनिता का रूप , मुग्ध,साश्चर्य देव थे सारे.
व्रज-सुन्दर ने सस्मित देखा, वंशी मधुर बजाया.
क्लींकार  का  गुंज  गोपिकाओं में मात्र, समाया.

======================

महारास के रहस्य पर श्री कृष्ण को अर्पित मेरी  लम्बी कविता  का यह एक अंश है .. मेरी यह लम्बी कविता , मेरी आगामी पुस्तक का प्रमुख अंश होगी..

जैसे आइन्स्टीन के द्वारा देखे गए सापेक्षता के रहस्य को विश्व में बस दो-चार लोग ही पूरी तरह समझ पाते हैं , उसी तरह महारास के रहस्य को विश्व में श्री कृष्ण-कृपा-प्राप्त कुछ लोग ही, वास्तव में,  समझ पाते हैं.

महारास के समय श्री कृष्ण की अवस्था नौ वर्ष की थी ..

जिन गोपिकाओं ने महारास में भाग लिया था उनमे सभी , श्री कृष्ण से अधिकतम दो वर्ष मात्र  बड़ी थीं.

 श्री राधा जी,  श्री कृष्ण से एक वर्ष बड़ी थीं. ..


-- अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

कोटि कोटि सूर्यों की आभा एक ज्योति में हुई प्रविष्ट

जगन्माता धूमावती -यन्त्र 


महानिशा में किया प्रज्ज्वलित माँ को अर्पित दीप,विशिष्ट 
कोटि कोटि सूर्यों की आभा एक ज्योति में हुई प्रविष्ट.
देखा सूर्य - चन्द्र को लेते जन्म और फिर देखा अंत.
देखा माँ की मधुर-मूर्ति , फिर देखा भीषण रूप , दुरंत.


सो अकामयत एकोsहं बहुस्यां प्रजायेय .. 
उन्होंने -- ईश्वर ऩे कामना की कि मैं एक हूँ , अनेक को जन्म दूं... 
और ये अनंत अपरिसीम ब्रह्माण्ड उत्पन्न हो गया.. 

पृथ्वी माता , प्रति सेकेण्ड ३० किलोमीटर की गति से , भगवान सूर्य की परिक्रमा कर रही हैं.. 
एक सेकेण्ड के लिए भी उनकी यात्रा रुकी नहीं .. जन्म से अब तक... 

क्या हम पृथ्वी पर अपने अपने अहंकार में डूबे हुए लोगो को यह  अनुभव होता है कि हम एक ऐसे पिंड पर जीवन बिता रहे हैं जो इतनी तेज़ गति से यात्रा कर रहा है अंतरिक्ष में.. 

विज्ञान कहता है की जिस दिन मनुष्य को यह अनुभव हो जाय , उस व्यक्ति की तुरंत मृत्यु हो जायेगी..

-- अरविंद पाण्डेय 

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

दुर्गा होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने - Vandita Sings


ॐ नमश्चंडिकायै .

आज नवरात्र पर माँ को पुनः अर्पित:भजन 
==============
मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
जननी होइ गईन दयालु आजु मोरे अंगने.
१ 
मैया के माथे पे सोने की बिंदिया .
बैंठीं करके सिंगार आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
२ 
मैया के पैरों में चांदी की पायल.
बाजे रन झुन झंकार आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
३ 
मैया के होठों पर पान की लाली..
पल पल बरसे आजु मोरे अंगने .

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने. 
४ 
माँ के गले मोतियन की माला.
मुख पे नैना विशाल आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
५ 
गोरे बदन पर चमके बिजुरिया.
जिसपे चुनरी है लाल मोरे अंगने .

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
६ 
मैया करती हैं सिंह सवारी .
नाचे सिंह विशाल आजु मोरे अंगने 

मैया होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
जननी होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.
दुर्गा होइ गइन दयालु आजु मोरे अंगने.

विन्ध्याचल-धाम के घरों में ये गीत गाया जाता रहा है..

अपनी माता जी के स्वर में ये गीत, मैं बचपन से ही, प्रत्येक पारिवारिक उत्सव के अवसर पर, सुनकर आनंदित होता रहा हूँ..

मूलरूप से ये गीत विन्ध्याचल की लोक-भाषा में है.इसे मैंने फिर से लिखा-खडी बोली में.और मुखड़े को छोड़ कर, भाव भी मेरे हैं .. 

वन्दिता ऩे इसे स्वर दिया .२००२ में रिकार्ड हुआ और वीनस ऩे इसे रिलीज़ किया था.. आज नवरात्र पर माँ को पुनः अर्पित..

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

माँ तुम एक, प्रतीत हो रहीं , पर, अनेक तुम.





ॐ नमश्चंडिकायै

नारी का नारीत्व, पुरुष का पौरुष हो तुम.
कुसुम-सुकोमल और अशनि के सदृश परुष तुम.
सर्व-व्याप्त हो, सर्वमयी हो किन्तु एक तुम.
माँ तुम एक, प्रतीत हो रहीं , पर, अनेक तुम.

Aravind Pandey 

बुधवार, 28 सितंबर 2011

माँ,तू रूद्राणी,शूलधारिणी,नारायणी,कराली है.नंदिता पाण्डेय का स्वर-पुष्प


 नवरात्र पर्व के प्रथम दिवस पर .
माँ को अर्पित भक्ति-गीत 
नंदिता पाण्डेय के स्वर में..

गीत लिखे कोई कैसे तुझ पर,चरित अनंत,अपार है माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

१ 

माँ , तू रूद्राणी , शूलधारिणी , नारायणी, कराली है.
विन्ध्यवासिनी माता मेरी , तू ही शेरावाली है.

माँ स्वर्ण-कमल है आसन तेरा , आँखों से करूणा बरसे .
शंख, चक्र औ पद्म लिए तू , माँ , मेरे ही मन में बसे.

तू असुरों का नाश करे औ तुझसे ये संसार है माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

२ 

माँ मधु-कैटभ का नाश किया औ देवों का कल्याण किया.
चामुंडा बन कर तूने ही रक्तबीज का प्राण लिया .

माँ, फिर से धरती पर असुरों का फैला है आतंक बड़ा.
धर्म हुआ कमज़ोर, अधर्मी पापी फिर से सर पे चढ़ा .

ले ले अब तू फिर से इस धरती पर वो अवतार, हे माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

गीत लिखे कोई कैसे तुझ पर, चरित अनंत,अपार है माँ.
तू कल्याणमयी वाणी है , तू उसके भी पार है माँ.

Aravind Pandey

शनिवार, 24 सितंबर 2011

तेरी ख्वाहिश ही अब मेरी शहंशाही की ग़ुरबत है

हज़रत मूसा , नख्ल-ए-तूर के सामने, वृक्ष  में  प्रकट  ईश्वरीय-प्रकाश  के   दर्शन
से  परमानंदित
----------------------

तेरे नज़दीक आ पाता हूँ, अक्सर, मैं इन्हीं के साथ.
मुझे रातों की रानाई से , इस खातिर, मुहब्बत है.
खलाओं की खलिश में ख्वाहिशों की खैरियत मत पूछ,
तेरी ख्वाहिश ही अब मेरी शहंशाही की ग़ुरबत है.

I love the lustre of lonely nights ,
Since, with it, I come closer to You. 
O GOD ,  My desire to get Your affinity
is powerty of My Emperorship, now. 


जिस वृक्ष के सामने हज़रत मूसा को  ईश्वरीय  प्रकाश का दर्शन हुआ था  उसे 
  नख्ल-ए-तूर   कहा जाता है ..

ग़ुरबत = दरिद्रता 
खलिश = चुभन .

Aravind Pandey 

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

वह कौन जिसे आँख देखती ही रह गयी..

                              
 मुझसे कई मित्रों ने पूछा कि आप प्रेम की कवितायें या नज़्म किसे लक्षित कर लिखते हैं .. क्योंकि लिखते समय लेखक की दृष्टि में कोई व्यक्ति या वस्तु तो रहनी ही चाहिए जिसे लक्षित कर शब्दों के माध्यम से प्रकट भाव, अपनी यात्रा कर सकें .. इन प्रश्नों पर मैंने कई बार सोचा ।

मैनें एक दिन , किसी प्रणयिनी के प्रसन्न-मन की तरह अनंत रूप से विस्तृत और खिलखिलाते हुए आकाश को देख कर, खुद से प्रश्न किया था ---

'वह कौन जिसे देख गुनगुना उठा ये मन .
वह कौन जिसे छूके गमगमा उठा ये तन
वह कौन जिसे आँख देखती ही रह गयी,
महकी हुई हवा ये बही सन सनन सनन ..

मैनें जब किसी सांस्कृतिक-कार्यक्रम में - चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल' गाया तो भी यही प्रश्न मुझसे कुछ मित्रों ने किया कि आखिर गाते समय जो भाव, स्वर-लहरियों में पग कर, छलकते हैं, वे किसको भिगोने को बेताब होते हैं ॥

ये प्रश्न मुझे अति प्रासंगिक लगे थे और इन प्रश्नों पर मेरा अपना चिंतन है . मै समझता हूँ कि मेरा यह चिंतन, वैज्ञानिक और यथार्थवादी भी है .
चांदी जैसा रंग - क़तील शिफाई की बेहतरीन खूबसूरत नज़्म, जब मैंने पढा तो मुझे लगा कि ये नज़्म , बज्मे कुदरत के लिए लिखी गयी ..

मगर इश्क की हकीकत से महरूम लोगों नें ये समझा कि ये किसी खूबसूरत, परीजाद जैसी स्त्री के हुस्न की तारीफ़ में लिखी गयी .

सत्य यह है कि दुनियावी खूबसूरती एक ऐसा सितारा है जिसे पाने को जो जितना ही आगे बढे वह सारी कोशिशों के बाद , खुद को उतना ही पीछे महसूस करता है ।

एक कार्यक्रम में मैंने ' चांदी जैसा रंग ' गाने के पहले श्रोताओं से पूछा - ' क्या आपमें से किसी ने कोई ऐसी स्त्री देखी है जिसकी देह का रंग चांदी जैसा चमके और जिसके बाल सोने की तरह कान्तिमान हों ।'

सभी ने एकस्वर से कहा - नहीं देखा ।

तो मैंने गाना शुरू किया और कहा की इस गीत को मैं उस मातृभूमि - धरती माता को समर्पित करते हुए गा रहा हूँ जिसका रंग सचमुच चांदी जैसा है और जिसके बाल . वास्तव में स्वर्णिम कान्ति से विभूषित हैं । तालियाँ बजी लोगों ने गीत का स्वाद लिया , आनंदित हुए ..

नयी दृष्टि ने उन्हें बौद्धिक दृष्टि से भी समृद्ध भी बनाया ..

प्रेम की शुद्ध वैज्ञानिक परिभाषा और लक्षण नारद भक्तिसूत्र में प्राप्त होता है । श्री नारद ने प्रेम का लक्षण निरूपित करते हुए कहा -- तत्सुखे सुखित्वं स्यात् अर्थात जिस पुरूष में यह लक्षण मिले कि वह किसी स्त्री के सुखी हो जाने पर स्वयं सुख का अनुभव करता है । या कोई स्त्री, किसी पुरूष के सुखी होने में स्वयं सुखी होने का अनुभव कर रही तो यह लक्षण प्रेम का है ।

मगर संसार में हो क्या रहा अक्सर ? स्त्री और पुरूष एक दूसरे के अस्तित्व का प्रयोग, स्वयं को सुखी करने में कर रहे । तो यह प्रेम का लक्षण तो है नही । फ़िर , चाँद-फ़िज़ा जैसी कथाएं , प्रेम के नाम पर , आतंक का प्रतीक बन, प्रेम शब्द के प्रति भयग्रस्त बना रहीं लोगों को ।

वस्तुओं के प्रति प्रेम ने समाज को घायल कर रखा है । दहेज़-प्रताड़ना के मामलों में अक्सर मैनें पाया कि पत्नी अत्यन्त रूपवती है फ़िर भी उसके रूप की संपत्ति को न आंक पाने के कारण पति ने पैसे के लिए उसे प्रताडित किया । और जब उसे मैंने इस बात के बारे में समझाया तो उसे गलती का एहसास हुआ और पत्नी-पति के सम्बन्ध सुधर गए ।

एक बात और । संसार में जो आकर्षण है स्त्री -पुरूष का एक दूसरे के प्रति, वह किसी भौतिक -गुण के प्रति आकर्षण है न कि उस व्यक्ति के प्रति जिसके प्रति कोई आकर्षित हो रहा । ऐसे आकर्षणों में स्त्री या पुरूष के वे भौतिक गुण यदि अधिक मात्रा में किसी अन्य स्त्री या पुरूष में दिखाई पड़ेंगे तो आकर्षण की दिशा निश्चित रूप से बदल जायेगी । उस ओर जहा वे गुण अधिक दिखाई पड़ रहे । फ़िल्म उद्योग और शोभा डे की सितारों भरी रात्रियों की मस्ती में डूबने वालों के विशिष्ट समुदाय , में इस प्रणय - विचलन की घटनाएँ प्रचुर संख्या में प्राप्त हैं ।

वास्तव में अनंत प्रेम या तो ईश्वर के प्रति ही हो सकता है या जिसे ईश्वर मान लिया जाय उसके प्रति हो सकता है । क्योंकि इश्वर में ही अनंत मात्रा में सौन्दर्य, माधुर्य, कोमलता , ऐश्वर्य , पौरुष, यशस्विता , श्री , उपलब्ध है जिसके कारण कोई भी किसी के प्रति संसार में आकर्षित होता है ।

अनेक प्रेम-अपराधों के अनुसंधान में मैंने यही पाया कि अपराध इसलिए हुआ क्योंकि श्री नारद की परिभाषा के अनुरूप वहाँ प्रेम था ही नही मात्र प्रेम का आभास था जिसे प्रेम कहा जा रहा था । लोग स्वयं को सुखी बनाने के लिए दूसरों की ताकत का प्रयोग कर रहे थे और यह स्वयमेव एक अपराध है ।

समाज को समृद्ध , शांत और सुंदर बनाने के लिए यह ज़रूरी है की लोग प्रेम का प्रशिक्षण प्राप्त करें , उसे समझें और यह देखें कि वे जिसे प्रेम करते हैं उसे कितना सुखी बना रहे । दूसरों को सुखी करने वाले में ही प्रेम घटित हो सकता है वरना इश्के मिजाजी का तो यही हाल देखा और लिखा -

इस इश्के मिजाजी की तो है बस इतनी दास्तान
इक तीर चुभा , खून बस बहता ही जा रहा
हर शख्स की ज़ुबान , आँख , कान बंद है
इक मैं हूँ जो बस दर्दे दिल कहता ही जा रहा


----अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 17 सितंबर 2011

तेरी रहमत,मेरी आँखों से दिल में यूँ उतरती है

श्री राधा म्रदुभाषिणी मृगदृगी  माधुर्यसन्मूर्ती थीं .
''प्रियप्रवास'' महाकाव्य में श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय ' हरिऔध'
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तेरी रहमत,मेरी आँखों से दिल में यूँ उतरती है 

कि जैसे शम्स की किरनें उतरती हैं खलाओं में .
कि जैसे खुश्क मौसम में कोई राही परेशां हो,
मगर,बस यूँ अचानक,इत्र घुल जाए हवाओं में.
कि जैसे आसमां में हो कोई आवारा सा तारा .
मगर मिल जाए उसको ताज कोई कहकशाओं में 

तेरी रहमत , मेरी आँखों से दिल में यूँ उतरती है ,
कि चिड़िया का कोई बच्चा ज्यूँ हो माँ की पनाहों में.


अरविंद  पाण्डेय  

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

उदय-अस्त दोनों ही स्थिति में प्रणय-पूर्ण जो होता है.



तरणि  , उदित हो, रंग देते हैं प्रणय-वर्ण में नीलाकाश.
और अस्त होने पर भी वितरित करते अरुणाभ प्रकाश.
उदय-अस्त दोनों ही स्थिति में प्रणय-पूर्ण जो होता है.
कृष्णचन्द्र  को वही भक्त सबमें ,सबसे प्रिय होता है.

The Sun rises. adorned with candid color of Love,
And, sets with the grand  glow of  fragrant rose.
While  being crushed down or being placed above,
Who puts on the same color, God embraces those.


-- अरविंद पाण्डेय  

प्रणय-वर्ण = लाल  रंग 

रविवार, 11 सितंबर 2011

ईश्वर ऩे है दिया सभी को,दिव्य गगन का राज्य प्रशस्त.


ईश्वर ऩे है दिया सभी को,
दिव्य गगन का  राज्य प्रशस्त.
किन्तु,लोग कलुषित,क्षण-भंगुर
क्षुद्र  वस्तु  में  हैं  आसक्त. 

प्रतिदिन सविता सस्मित,सादर 
जिसे  बुलाता  अम्बर में 
वही मनुज है अविश्वस्त में 
व्यस्त, न्यस्त  आडम्बर में.

-- अरविंद पाण्डेय 

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मंगलवार, 6 सितंबर 2011

श्री राधाष्टमी:तुम अगर साथ देने का वादा करो : मेरे स्वर में



जय जय श्री राधे : श्री  राधाष्टमी  :

तुम अपनी बांसुरी के सुर मुझे जब जब सुनाते हो .
कोई  नगमा  अनूठा दिल से मेरे बह निकलता है.
मेरी हस्ती नहीं कुछ, पर,मुझे मालूम है इतना -
मेरे नगमों से भी कुछ पल,तुम्हारा दिल बहलता है. 

I feel fortunate to learn and sing this song from the Music Director of this song , Shri Ravi .. I was posted as City S.P. Ranchi , Jharkhand..(1994 ) He visited my house , stayed with us, told so many unheard stories about Rafi sahab , Lata ji , Mukesh ji , Kishor Da and other legends of Hindi Film Music Industry .. 



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गुरुवार, 1 सितंबर 2011

हरतालिका तृतीया के महापर्व पर : मैं तो बनूगी शिव की पुजारन:नंदिता पाण्डेय के स्वर में.



हरतालिका तृतीया :

सकल विश्व की माताओं को सतत प्रणाम !!!

कालिदास का यह छंद मुझे अत्यंत प्रिय है और मेरे द्वारा किया गया  इसका अनुवाद भी  मुझे अतिशय प्रिय है..आप सभी इसे ज़रूर पढ़ें और अपने विचार लिखें .

कुमार संभव में कालिदास :

तं वीक्ष्य वेपथुमती सरसांगयष्टिः
निक्षेपणाय पदमुद्ध्रितमुद्वहन्ती
मार्गाचलव्यतिकराकुलितेवसिन्धु:
शैलाधिराजतनया न ययौ न तस्थौ.

मेरा अनुवाद:

उन्हें देखकर पुलक-सुगन्धित,कम्पितदेह शिवानी.
तत्पर जो अन्यत्र गमन को,शिव-सरसांग भवानी.
पथ-स्थित-अचलारुद्ध नदी सी आकुल,पर,आनंदित.
न तो स्थित रहीं न तो कहीं अन्यत्र हो सकीं प्रस्थित.

यह दृश्य उस समय का है जब शिव-प्राप्ति हेतु किया जा रहा जगन्माता पार्वती का तप पूर्णप्राय हो चुका होता है.भगवान शिव, वटु-वेश में वहां आते हैं और शिव-निंदा करते हुए पार्वती को तप से निवारित करने का प्रयास करते हैं..पहले तो माता उन्हें तर्क से परास्त करने का प्रयास करतीं हैं.किन्तु, वे रुकते नहीं..पुनः कुछ कहना चाह रहे होते हैं..माता अपनी सखियों से कहती हैं-

निवार्यतामालि किमप्ययं वटु: 
पुनः विवक्षु: स्फुरितोत्ताराधर:
न केवलं यो महतोSपभाशते
शृणोति तस्मादपि यः स पापभाक.

इतना कह कर वे अपना पैर वहां से हट जाने के लिए उठाती ही हैं कि वटु-वेशधारी सदाशिव उनके सामने प्रकट हो जाते हैं..उस समय माता की जो स्थिति होती है उसी का वर्णन कालिदास ने उक्त छंद मे किया है जो सम्पूर्ण विश्व-साहित्य के सर्वोत्तम काव्य में माना जाता है.भारतीयों द्वारा ही नहीं , भारतविद्या के जर्मन, अंग्रेज,आदि विद्वानों द्वारा भी.

कुमारसंभवं का यह प्रसंग मेरे पिता जी बचपन से ही मुझे सुनाया करते थे.

इतना सरस प्रसंग -- वह भी अपनी माता और पिता का प्रेम प्रसंग ..कितना समाधिकारक है यह..

आज माता के पर्व पर यह प्रस्तुत करने की इच्छा हुई






अरविंद पाण्डेय 

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

अल्लाह की नेमत से हर इक सांस मेरी ईद.

अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन .
.
अलिफ़ लाम मीम 

सर्वेश्वर, बस तुम्हीं प्रणम्य.
-----------------------------

हर शब ही शब-ए-कद्र सी आती है मेरे पास.
अल्लाह की नेमत से हर इक सांस मेरी ईद.

हिन्दू  हो, मुसल्मां  हो, ईसाई  या   यहूदी .
हर  शख्स  को  ईमान  सिखाती है मेरी ईद.

शुभ शुक्र हो, होली हो , दिवाली हो या पोंगल,
इंसान की खुशियों में ही मनती है मेरी ईद.

मज़हब मेरा इस्लाम , मुसल्मां है मेरा नाम.
हंसते हुए बच्चे में, पर,  हंसती है  मेरी  ईद.

जब दिल में दूरियां हों, मज़हबों में दुश्मनी .
फिर, अम्न का इक चाँद ले आती है मेरी ईद

तुमको भी अगर इश्क की ख्वाहिश हो मेरे दोस्त.
आना  मेरे  घर ,  तुमको  बुलाती  है मेरी ईद.

-- अरविंद पाण्डेय 

शनिवार, 20 अगस्त 2011

आदमी बस चल रहा है.


आदमी बस चल रहा है.

यह बिना जाने
 कि जाना है कहाँ , कैसे , किधर,

वक़्त उसका बेवजह ही ढल रहा है.

आदमी बस चल रहा है.

खुद उसी की आरजू ने 
आग दिल में जो लगाईं,

वह उसी दोज़ख में बेबस ,
रात दिन बस जल रहा है.

आदमी बस चल रहा है.

-- अरविंद पाण्डेय 

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दोज़ख = नरक  

सोमवार, 15 अगस्त 2011

मुझे तो चाहिए बस आज वही हिन्दुस्तां.


जो लाखों लोग हिफाज़त तुम्हारी करते हैं.
कड़कती धूप, ठण्ड, शीतलहर सहते हैं.
तुम जिनके दम पे अब लेते हो दम आज़ादी का.
उन्हें भी देखना किस हाल में वो रहते हैं.

अगर अवाम के तन पर नहीं कपडे होंगे,
अगर गरीब हिन्दुस्तान के भूखे होंगे.
समझ लो फिर ये आज़ादी अभी अधूरी है.
अभी मंजिल में और हममे बहुत दूरी है.

अगर बारिश हो तो हर शख्स नाच नाच उठे .
अगर जो शाम ढले, सबके दिल में गीत उठे.
सभी बेख़ौफ़ घूमते हों रात , राहों में.
हर एक दिल हो यहाँ इश्क की पनाहों में.

हर एक दिल में ही जब ताजमहल सजता हो.
हर एक शख्स ही जब शाहजहां लगता हो.
हर एक दिल में हो खुदा-ओ-कृष्ण का ईमां.
मुझे तो चाहिए बस आज वही हिन्दुस्तां.

हर एक शख्स में जब शायराना मस्ती हो.
हर एक शय खुद अपने आपमें जब हस्ती हो.
तभी आज़ादी का सपना मेरा पूरा होगा.
ज़रा भी कम जो मिले, लक्ष्य अधूरा होगा.

अरविंद पाण्डेय 

शनिवार, 13 अगस्त 2011

एक हुए भाई बहन , धन्य धन्य यह प्रीत.

 
रक्षाबंधन विजयते

स्वारथ के संसार में , देखी अद्भुत रीत.
एक हुए भाई बहन , धन्य धन्य यह प्रीत.

कृष्ण सुभद्रा राम का, आज करूं अभिषेक .
ब्रज की प्रेमकथा सुनी, हुए पिघल कर एक.


मंगलवार, 9 अगस्त 2011

मगर,मै रुक नहीं सकता, मुझे मंजिल बुलाती है.



ॐ आमीन :

नशीली सी फिजाएं देख  मुझको ,मुस्कुराती  हैं.
बहुत मीठे सुरों में  मस्त  कोयल  गीत गाती है.
बड़ा  ही  खूबसूरत  है  मेरी राहो का हर गुलशन.
मगर,मै रुक नहीं सकता, मुझे मंजिल  बुलाती है.

अरविंद पाण्डेय

शनिवार, 6 अगस्त 2011

मगर, मेरी तो बस इतनी सी एक ख्वाहिश है.

(26 जनवरी २००५ . समादेष्टा .बिहार सैन्य पुलिस .पटना )


वन्दे मातरं ..

किसी में आरजू होगी कि चाँद पर जाए.
किसी में जुस्तजू होगी कि चाँद खुद आए.
मगर, मेरी तो बस इतनी सी एक ख्वाहिश है.
कि जान जाय तो बस मुल्क के लिए जाए..




अरविंद पाण्डेय 

बुधवार, 3 अगस्त 2011

धन्य राम चरित्र का यह प्रबल पूत प्रताप..


श्री मैथिलीशरण गुप्त.
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3 अगस्त :

धन्य राम चरित्र का यह प्रबल पूत प्रताप.
कवि बने अल्पग्य कोई आप से ही आप.


कक्षा ८ में अध्ययन के समय ही मैंने श्री मैथिलीशरण गुप्त में महाकाव्य '' साकेत '; ''पंचवटी'' चिरगांव, झांसी से मंगाया था.साकेत के प्रथम पृष्ठ पर एक प्रसिद्द छंद अंकित था-

राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है.
कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है.

उसी छंद के नीचे ही मैंने अपनी उपर्युक्त दो पंक्तियाँ अंकित कर दी थीं.मेरे पास उपलब्ध साकेत की प्रति आज मेरे सामने है और आज पुनः वह छंद मेरे समक्ष समुज्ज्वल है


अरविंद पाण्डेय

रविवार, 31 जुलाई 2011

काश, रफ़ी साहब इन पंक्तियों को गाते :


काश, रफ़ी साहब इन पंक्तियों को गाते :

तेरे रुखसार के दोनों तरफ बिखरें हैं जो गेसू.
हैं कुछ उलझे हुए,फिर भी ज़रा मदहोश से भी हैं.
तेरी इन अधखुली आँखों की मस्ती घुल गई इनमे 
या तेरे दिल की उलझन ही कहीं उलझा रही इनको.


रफ़ी साहब को ये पंक्तियाँ समर्पित.आज उनकी पुण्यतिथि है.इस देश के लोगों को उन्हें इसलिए भी याद करना चाहिए क्योकि वे पाकिस्तान गए.वहाँ उन्होंने प्रसिद्द भजन - ओ दुनिया के रखवाले-- गाया.और कुछ इस तरह से गाया कि हमारे पाकिस्तानी भाइयों ऩे मज़हब का भेद भूलकर, Once More - का नारा लगाया .और रफ़ी साहब को वो गीत दुबारा गाना पडा. जो हमारे पुरोधा आज तक नहीं कर सके और शायद न कर पाएगें, उसे रफ़ी के दिव्य स्वर ऩे सहजता से कर दिया था..वे होते और मैं इन चार पंक्तियों को गीत का रूप देता और वे गाते इसे..ये स्वप्न धरती पर कभी यथार्थ बन पाए तो .....










शनिवार, 30 जुलाई 2011

किया संतरण सतत शून्य में,मिला न यात्रा-पथ का छोर.


भासस्तस्य महात्मनः 

दुनिया के युद्धों से थक कर, कल मैं उड़ा गगन की ओर.
किया संतरण सतत शून्य में,मिला न यात्रा-पथ का छोर.
महासूर्य का लोक दिखा फिर, देश-काल था जहाँ अनंत.
बस,प्रकाश का एकमेव अस्तित्व,तमस का अविकल अंत.

स्वप्रकाशमानंदं ब्रह्म .. 

कुरुक्षेत्र में विराटरूप दर्शन में अर्जुन ऩे श्री कृष्ण को देखा था - मानों आकाश में करोड़ों सूर्य एक साथ उदित हो उठे हों..जय श्री कृष्ण..वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष में एक ऐसे प्रकाश-पुंज का संकेत मिला है जो हमारे सूर्य से १४० अरब गुना बड़ा हैं एवं जिसका प्रकाश, हम तक आने में, १४० अरब प्रकाश वर्ष का समय लगता है..


अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

लोध्र पुष्प-रज से राधा का करते केशव श्रृंगार.


वृन्दावन के निभृत कुञ्ज में श्री राधा-वनमाली .
स्वच्छ शिला पर बैठे थे , छाया करती थी डाली.
लोध्र पुष्प-रज से राधा का करते केशव श्रृंगार.
योगी थे साश्चर्य , देख , योगेश्वर का व्यापार .


प्राचीन काल में लाल रंग के लोध्र पुष्प के पराग के लेप से मुख का श्रृंगार किया जाता था.
कालिदास ऩे मेघदूत में लिखा है:

नीता लोध्रप्रसवरजसा पांडुतामानने श्री: 


निभृत = एकांत.
साश्चर्य = आश्चर्य से युक्त. 







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शनिवार, 23 जुलाई 2011

मैं देव और पशु साथ साथ, मैं हूँ मनुष्य .


ॐ.आमीन .
मै  अणु बनता हूँ कभी ,कभी  बनता विराट .
अनुभव करता परतंत्र कभी,  बनता  स्वराट.
मैं कभी क्रोध-प्रज्वाल, कभी श्रृंगार शिखर ,
मैं नियति-स्वामिनी का बस हूँ सेवक,अनुचर.

 मैं देव और पशु साथ साथ, मैं  हूँ  मनुष्य .

अरविंद पाण्डेय

बुधवार, 20 जुलाई 2011

संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ ...



संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ 
यं यं व्यतीयाय पतिंवरा  सा.
नरेंद्र मार्गाट्ट इव प्रपेदे 
विवर्णभावं स स भूमिपालः

 
राजमार्ग-संचरण  कर  रही  दीप शिखा सी, इंदुमती.
वरण हेतु आए जिस वर को छोड़,बढ़ चली, मानवती.
उस नरेंद्र का हुआ मुदित मुखमंडल,सद्यः कांति-विहीन.
दीपशिखा-रथ बढ़ जाने से पथ-प्रासाद हुआ ज्यों दीन.

कालिदास की सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वरमणीय उपमा का उदाहरण- 
यह देवी इंदुमती के स्वयंवर का वर्णन है रघुवंश का. 
वे वरमाला लेकर वर के वरण हेतु संचरण कर रही हैं..............................शेष आप दृश्य को अपनी चेतना में रूपायित करें और  सहृदय-हृदय-संवेद्य रस-स्वरुप होकर , अलौकिक आनंद का भोग करे..