सोमवार, 4 अप्रैल 2011

काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.


प्रथम-दिवस नवरात्र का.

ॐ 

विन्ध्यस्थां विन्ध्यनिलयां विन्ध्यपर्वतवासिनीं.
योगिनीं योगजननीं  चंडिकां प्रणमाम्यहं .

==============
जब  कण  कण अपने  कारण  में  मिलता  है .
अस्तित्व,  काल का भी,  जिस  क्षण हिलता है.
जब खंड खंड हो , देश, शेष  हो  जाता .
तब, जगदम्बा का मुक्त केश लहराता.

जब सूर्य, शून्य बनकर सत्ता-च्युत होता.
जब महाप्रलय-जल, कृष्ण-चरण को धोता.
जब द्वैत, दृश्य-द्रष्टा का  मिट जाता है.
तब, माँ के मुख पर मधुर हास्य  छाता है.

जब घन-प्रकाश, तम में परिणत होता है.
जब तम भी अपनी सत्ता खो देता है.
जब महाविष्णु भी निद्रित हो जाते हैं.
काली के तब, मृदु-अधर गुनगुनाते हैं.

जब, सारी पृथ्वी,  जल में घुल जाती है.
जब , जल-सत्ता, पावक में मिल जाती है.
जब, पावक भी, पवमान स्वयं बनता है .
तब, महाप्रकृति का कमल-नयन खिलता है.

--  अरविंद पाण्डेय 

रविवार, 3 अप्रैल 2011

..अफज़ल का विकेट जब गिरे फांसी के तख़्त पर.



इस विश्व-कप का जश्न तब मनेगा मेरे घर.
अफज़ल का विकेट जब गिरे फांसी के तख़्त पर.
अफ़ज़ल,कसाब हैं असल जांबाज़ बल्लेबाज़.
जो, कर सको, करो ज़रा इनको भी कुछ नासाज़ .

===============

एक ''मैच'' था हुआ कारगिल में, पहले कुछ साल.
गिरे पांच सौ ''विकेट'' हमारे, धरती पूरी लाल.
''मैच'' हुआ फिर ''फिक्स'',और दोनों दल थे खुशबख्त .
दिया बहत्तर घंटे तक वापस होने का वक्त.


अफ़ज़ल और कसाब उन्हीं के ऐसे ''बल्लेबाज़''.
''विकेट'',जिन्हें दो सौ तक का,लेने का अब भी नाज़.
मगर उन्हें '' बाहर '' करने के खतरे का जो मोल,
कैसे, कौन चुकाए, हैं खामोश सभी के बोल.


इसी तरह, अक्साईचिन का ''क्रिकेट मैच'' हम हारे.
बासठ में चीनी सेना के हाथों बने बेचारे.
सैन्य-कारखाने में बनना बंद हुआ हथियार .
युद्धाभ्यास छोड़, हमने था किया शांति-व्यापार.


पञ्चशील के भ्रम में, जब हम शान्ति सहित सोते थे.
उसी समय, उनके सैनिक , हथियारों को ढोते थे.
तभी, अचानक ''मैच'' हुआ घोषित चीनी सेना का .
 क्रीडा-दक्ष सजग हो खेला करता सदा शलाका.

हम तो  खुदमुख्तार और आज़ाद वतन कहलाते.
पर, अपनी ही सीमा पर, जब जब भी, हम हैं जाते.
पूछा करते हैं अधिकारी अपने दोस्त वतन के.  
''अरुणाचल में क्यों प्रधानमंत्री आये भारत के .''


यहाँ सभी हैं विकेट,क्रिकेट, बल्लेबाजी में अटके.
ताकतवर बनने का रास्ता छोड़, नौजवां भटके.
और,श्रेष्ठ रहनुमा यहाँ छल-छद्मों में मशगूल.
ताज,मुंबई,कन्दहार,संसद हमले को भूल.
==================

जिस मुल्क में गेंदों से  जीतने पे जश्न हो.
कंधार-कारगिल पे, पर, कोई न प्रश्न हो.
उस मुल्क की मासूमियत को देख, देख कर .
दहशत-पसंद दिल को भला, क्यूँ न तश्न हो.


- अरविंद पाण्डेय        

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

इसी के नूर में श्री कृष्ण ने गीता थी कही..



मिटेगी सल्तनत, फटेगा आसमां इक दिन .
ये  शम्स ,चाँद सितारे बुझे बुझे होंगें. 
अगर बचेगा तो ईमान , आखिरत के दिन.
अगर  बचा सके उसे, तो, बच सकोगे तुम.

इसी के नूर में  श्री कृष्ण ने गीता थी कही.
इसी की रोशनी में आयतें उतरीं थीं कभी.
कुरआन , बाइबिल भी बस इसी से रोशन है.
इसी दरिया से कभी वेद  की ऋचा थी बही 


- अरविंद पाण्डेय

तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु.




तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु.

मृदु वसंत की शांत,सुशीतल पवन का मिले अभिनन्दन.
व्याकुलता-परिपूर्ण हृदय में अब हो ईश्वर का वंदन.
भेद, भीति ,भ्रम से विमुक्त हो सबका शिव-संकल्पित मन.
दिव्य-दीप्ति से दीपित देखे प्रतिजन, प्रतिपल ही प्रतिकण .

- अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 28 मार्च 2011

रहता ज़मीं पे, दास्ताँ, आस्मां की लिखता हूँ.



शायर हूँ मैं , गुज़रे बिना भी देख सकता हूँ.
रहता ज़मीं  पे, दास्ताँ, आस्मां की  लिखता हूँ.
चलते हैं सूरज ,चाँद भी मेरे इशारों पर.
तुमको  मगर इंसान का हमशक्ल दिखता हूँ.


- अरविंद पाण्डेय

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

इस खेल से हर खेल का खिलना है रुक गया.



वंदे मातरं !

इस खेल से हर खेल का खिलना है रुक गया.
एशियाड,ओलैम्पिक्स में ये सर है झुक गया .
जापान, कोरिया को जब मिलता है सौ खिताब.
दो-चार ले, किसी तरह बचता है अपना आब.



- अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 24 मार्च 2011

फंदे को कब चूमा था भगत ने , न उन्हें याद.



23 मार्च . 

जिस कौम की खातिर हुए शहीद, भगत सिंह.
उस कौम के बच्चे ही हैं तारीख से अनजान.
अभिषेक, शाहरुख का जनम दिन है जुबां पे .
फंदे को कब चूमा था भगत ने , न उन्हें याद.

शनिवार, 12 मार्च 2011

तू भी न ले इंसान की अब जान ऐ खुदा ..



प्रकृति की विजिगीषा में आज,
है रमा नव-मानव का लक्ष्य .
मर्त्य-अमरत्व-भवन का एक,
 विलक्षण लगता है यह कक्ष .

प्रकृति का यह प्रदृश्य ब्रह्माण्ड.
कहाँ रखता है अपना अंत.
अल्प प्रश्नोत्तर - अज्ञ मनुष्य ,
प्रकृति-जय में है आशावंत !

उफनते सागर की उत्ताल 
तरंगों का यह भीषण खेल.
रोक सकता है क्या यह मूढ़ 
मनुज अपनी सब शक्ति उड़ेल.

सतत विपरीत क्रिया से त्रस्त
प्रकृति जब होती है अति-क्रुद्ध.
आज की प्रकृति-विजयिनी शक्ति 
भूल जाता है नर-उद्द्बुध.
=============

यह कविता मैंने २/७/१९७९ को लिखी थी..
जब मैं हाई स्कूल का विद्यार्थी था ..
एवं यह मेरी पुस्तक '' स्वप्न और यथार्थ ''में प्रकाशित है तथा मुझे अत्यंत प्रिय भी है.
==============
आज जापान, मानवता की वैज्ञानिक-प्रज्ञा के  सर्वश्रेष्ठ शिखर के रूप में सार्वभौम स्वीकृति प्राप्त कर चुका है..किन्तु वही  जापान, पृथ्वी  के चित्त में पल रहे भीषण क्रोध , महासागर की शीतल तरंगो के संभावित तप्त कोप  का पूर्वानुमान नहीं कर पाया और क्रुद्ध धरती एवं कुपित महासागर के समक्ष उन नगरों और नगरवासियों को दया की भिक्षा माँगने का अवसर भी नहीं मिल पाया जो उस क्रोध के प्रत्यक्ष कारण नहीं थे.
यह परिणाम हमें दुःख के  महासागर में डुबोता ही है मगर डुबोते हुए भी हमें '' सार्वभौम समानुभूति ''  एवं '' सार्वभौम संवेदनशीलता ''   ( Empathy ) का उपदेश भी दे रहा है .. 
समानुभूति सिर्फ मनुष्य या अन्य जीवित प्राणियों से ही नहीं अपितु समस्त प्रकृति से भी ..
 प्रकृति के उन क्षुद्र अवयवों से भी   जिनकी हम  अपने कथित विकास की प्रक्रिया को पूरा करने में उपेक्षा करते रहे है..
प्रकृति को भी कष्ट होता है जब हम उससे दान न मांग कर बलपूर्वक कुछ लेना चाहते हैं..
जिस महासागर ने अपनी प्रकुपित तरंगों से जापान को आहत किया है उसी  महासागर ने देह धारणकर, श्री राम के समक्ष प्रकट होकर , अपने वक्ष पर सेतु - निर्माण की स्वीकृति दी थी..
हम भारत के लोग सम्पूर्ण प्रकृति को चेतन देखते रहें हैं..ये दृष्टि अगर लुप्त होगी तो इसी दृष्टि को पुनः प्राप्त करने के लिए मानवता को भीषण त्रासदी से गुज़रना ना होगा..
मनुष्य के प्रति मनुष्य का संवेदनहीन होकर व्यवहार करना , कर्ता के लिए  संभव है, देर से प्रतिकूल परिणाम उत्पन्न करे परन्तु महाप्रकृति,अपने  विरूद्ध प्रकट संवेदनहीनता के परिणाम को विलंबित नहीं करेगी..
यह दुखद परिणाम, हमें इसी  संवेदनहीनता के कारण देखना पडा है जिससे बचने का  व्यपदेश उन तथागत बुद्ध ने किया था जिनकी अहिंसा की प्रबल तरंगों के सामने तथा जिनके विकसित कमल सदृश नेत्रों से निकलती हुई करुणा-सलिल-धारा में अभिषेक कर , खद्गोत्थित-हस्त अंगुलिमाल उनके चरणों पर गिर पडा था ..

नास्त्रादेमस ने कहा था जापान के बारे में कुछ .. 
उसका उल्लेख न करते हुए हम सभी परमात्मा से प्रार्थना करे उस सुन्दर, सुरभित, सुललित, सुपुष्पित , सुसलिल पृथ्वी की रक्षा के लिए जो अनंत श्री भगवान् के अवतार के समय उनके श्री चरणों के स्पर्श से  धन्य हुआ करती है ..
===================

प्रार्थना 
========  

तेरे लिए तो मौत-जिंदगी है बराबर.
इंसान के लिए मगर है ज़िन्दगी हसीन.
वैसे भी, जान ले रहा इंसान की इंसान.
तू भी न ले इंसान की अब जान ऐ खुदा

   ----अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 7 मार्च 2011

पितामह भीष्म द्वारा शर शैय्या पर की गई श्री कृष्ण की स्तुति : मेरे स्वर में.




ॐ कृष्णं वन्दे जगद्गुरुं

स्वर भी तुम हो शब्द भी.
ध्वनि भी तुम आकाश.
दृश्य तुम्हीं ,दर्शक तुम्हीं,
तम भी तुम्हीं प्रकाश ..

शर शैय्या पर भीष्म द्वारा श्री कृष्ण की स्तुति :
अपनी प्रतिज्ञा भंग करके, भक्त भीष्म की प्रतिज्ञा की रक्षा करने के लिए भीष्म की ओर रथ का पहिया लेकर दौड़ते हुए भी भीष्म पर परम कृपा पूर्ण नेत्रों से करुणा की वर्षा करनेवाले श्री कृष्णचंद्र के चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ ..
मुझे श्रीमद भागवत में, शर-शैय्या पर लेटे हुए पितामह भीष्म द्वारा ,श्री कृष्ण का दर्शन करते हुए,अपनी मृत्यु के समय की गयी श्रीकृष्ण की स्तुति अत्यंत प्रिय है जिसे पढ़कर रोमांच होने लगता है और आंसू बहने लगते है ..भीष्म के सम्मुख स्वस्थ.प्रसन्न श्री कृष्ण, पांडवों और अन्य ऋषियों के साथ खड़े थे ..अपने समक्ष उन्हें देखकर भी,भीष्म का मन. श्रीकृष्ण के उस रूप के चिंतन में तन्मय हो गया जो उन्हें अत्यंत प्रिय था ..

भीष्म की प्रेमपूर्ण वाणी भगवान की स्तुति करने लगी --
'' भगवान, त्रिभुवन-सुन्दर , तमाल-नीलवर्ण,रवि-रश्मि- उज्जवल,ज्योतिर्मय-पीताम्बर-परिधान,घुंघराली अलकों से सुशोभित मुखमंडल से सारी सृष्टि को आनंदित करनेवाले आप अर्जुन के सखा में मेरी प्रीती बनी रहे .युद्धभूमि में अश्वों के खुरों से उड़ती हुई धूलि से सनी हुई अलकें जिनके श्रीमुख के चारों  ओर छाई हुई है, मेरे तीक्ष्ण बाणों से जिनका कवच और जिनकी त्वचा छिन्न भिन्न हो गई है, वे श्री कृष्ण मेरे परम आराध्य हैं ..अपने सखा अर्जुन की बात सुनकर,अपने और शत्रुपक्ष की सेना के मध्य रथ लाकर खडा करके जो अपनी आँखों से ही शत्रुपक्ष की आयु का हरण कर रहे है --ऐसे पार्थसखा श्रीकृष्ण में मेरी प्रीति अविचल हो . .

सम्मुख उपस्थित सेना को देखकर,स्वजनों के संहार की आशंका से धर्मयुद्ध में दोषदृष्टि करते हुए युद्ध से विमुख होनेवाले अर्जुन की कुबुद्धि को जिन्होंने गीता के उपदेश द्वारा शुद्ध किया - वे महायोगी श्री कृष्ण मुझपर करुणा करते रहें ..

अपनी मर्यादा मिटाकर,मेरी प्रतिज्ञा सत्य करने के लिए रथ से कूदकर, हाथी का वध करने के लिए दौड़ते सिंह की तरह मेरी ओर दौड़ते हुए श्रीकृष्ण के कोमल चरण मेरे चित्त में स्थिर बने रहें ..

मुझ आततायी के तीक्ष्ण बाणों से जिनका कवच फट गया था, जिनकी पूरी देह क्षत विक्षत हो गयी थी, जो मुझे मार देने का अभिनय करते हुए मेरी ओर दौड़े आ रहे थे ऐसे भगवान मुकुंद में मेरी शुद्धा भक्ति अविचल हो..

जिनकी ललित -गति, मंद-मुसकान,प्रेमपूर्ण दृष्टि से अत्यंत समानिता गोपियाँ उन्मत्त के समान उनकी लीलाओं का अनुकरण करती हुई उनमे तन्मय हो गई उन रसेश्वर श्री कृष्ण में मेरी परम प्रीति हो ..

----अरविंद पाण्डेय

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

जिसका हाथ थाम मैं पीता..



जिसको  मेरे  होठ  पिएँ,
वह ही कहलाती  है हाला.

जिसका हाथ थाम मैं पीता.
वह बनती साकी बाला.

खुद  को  ही, खुद से ही पीकर, 
जिस दर मैं, मदहोश, फिरूं.

दुनिया वाले उस दर को ही 
कहते हैं यह मधुशाला.
=============
ईश्वर को परम रमणीय रमणी की रूप में देखना और स्वयं को उनका प्रेमी मानते हुए मस्त रहना--यह , विश्व के समस्त दार्शनिक प्रस्थानो को फारसी शायर संतो की  विलक्षण देन है..जिसे हृदयंगम करना, अमृत बन जाने के समान  है..एवं, जिस पर ईश्वर की प्रेमपूर्ण कृपा होती है वही इसे हृदयंगम कर पायेगा.. 


----अरविंद पाण्डेय