बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

प्यारे पैगम्बर मोहम्मद मुस्कुराए हैं ..


चांदनी ने हर तरफ़ चादर बिछाए हैं
अब मोहम्मद मुस्तफा तशरीफ लाये हैं




नूर का दरिया बहा चारो तरफ़ देखो
प्यारे पैगम्बर मोहम्मद मुस्कुराए हैं




चौदवीं के चाँद सा जो मुस्कुराते हैं
वो हमारे दिल पे छाने आज आए हैं




हर तरफ़ छाई अमन-ओ-सुकून की खुशबू
प्यारे मोहम्मद करम बरसाने आए हैं

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यह कविता मैंने मुज़फ्फरपुर के एक
मुशायरे में शिरक़त के लिए सल्लल्लाहु
अलैहि वसल्लम रसूलल्लाह की खिदमत
में पेश करने के लिए लिखी थी ...कार में

बैठे हुए मुशायरे में जाते समय ।
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टिप्पणियों का उत्तर
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इस कविता के बारे में चंदन और अन्य मित्रों ने
टिप्पणी की है -कविता अच्छी है । पर इसको मानने वाले
जब शान्ति की बात करे तब तो ।
मैं कहना चाहूगा -
याद करे -जब कर्णाटक और केन्द्र की सरकारों
ने फ़िल्म अभिनेता राजकुमार के अपहरण के बाद
वीरप्पन के ५० गुंडों को जेल से रिहा करने का
निर्णय लिया था तब अब्दुल करीम नाम के ८० वर्षीय
वृद्ध ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर के
इसका विरोध किया था और उनकी याचिका
पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था -
अपराधी नही रिहा होंगें ।
जो सरकार विधिव्यवस्था नही संभाल सकती
वह हटे , वह गद्दी छोड़ दे और जो संभाल सकता
हो वह गद्दी संभाले ।
और तब, बिना अपराधियों की रिहाई के ही
राजकुमार भी छूटे और विधिव्यवस्था भी बनी
रही ।
भारतीय मुस्लिम देशभक्त हैं और जब राजनीतिज्ञ
देशहित को गिरवी रख रहे होते हैं तब कोई वृद्ध
अब्दुल करीम खडा होकर इस महान देश के
गौरव की रक्षा करता है ।

---अरविंद पाण्डेय

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

इक नूर का दरिया बहाने आई है ये ईद.



हर दिल का अँधेरा मिटाने आई है ये ईद
इक नूर का दरिया बहाने आई है ईद

अफ़ज़ल दुआ मानिंद खुदा को है ये कबूल
कुरआन की अजमत बताने आई है ये ईद

इंसान की शैतानियत में बह गया इंसान
बहते हुए आंसू को पीने आई है ये ईद

वहशत की आग, ज़ुल्म की लपटों में जो जले
दिल पर उन्हें मरहम लगाने आई है ये ईद


----अरविंद पाण्डेय

मंगलवार, 16 सितंबर 2008

जब लोकतंत्र गल जाता है..

यह लम्बी कविता उन शहीदों
के सम्मान हेतु प्रस्तुत है जो नही
जानते थे की क्रुद्घ कोशीका क्रंदन
उन पर मृत्यु संकट उत्पन्न करने
वाला है। जो अनजाने में ही एक
भयावह रात में, मुझ जैसे सरकारी
सेवकों के अपराध के कारण, कोशी
के आंसुओं के समुद्र में, सदा के लिए
सो गए।
यह काव्य उन देश-भक्तों के सम्मान में भी
प्रस्तुत है जो बिहार में नहीं है पर
हमारे संकट मेंहमारे साथ खड़े है ---
मैं ऐसे सभी बिहार भक्तो को सैल्यूट
करता हूँ जो समूह बना कर, बचे हुए
के लिए दिन रात काम कर रहे है
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बिखरी कोशी बिखरा बिहार
फिर भी, मन में सपने हजार
१-
हो नदी या कि नारी, उर्मिल
चाहेगी बिखरे नहीं सलिल
कोई तटबन्ध उसे रोकें
हो अनियंत्रित , कोई टोके
कोशी तो करती थी पुकार
बांधे कोई, दे उसे प्यार
२-
पर कही, किसी ने नहीं गुना
कोशी का क्रन्दन नहीं सुना
नौकरशाहों का था निर्णय
हो शान्ति या कि फिर मचे प्रलय
मजदूरी नहीं बढ़ाएगे
जन में जल-प्रलय मचाएगें
३-
खण्डित कुशहा तटबन्ध हुआ
कोशी को क्रोध प्रचड हुआ
आंसू, लहरों में बदल गए
जलमग्न ग्राम, वन, नगर हुए
जब नारी, नदी कुपित होती
सारे समाज की क्षति होती
४-
मन में दानव सा लोभ लिए
मानव ने कैसे पाप किए
पानी बनकर ईमान बहा
कहने को ना कुछ शेष रहा
उन्मत हंसी नौकरशाही
गलकर बह गई लोकशाही
५-
कहने को है मजबूत तन्त्र
कोई कुछ करने को स्वतन्त्र
बाहर से हस्तक्षेप नहीं
कर्तव्य-कर्म में क्षेप नहीं
पर जनगण का टूटा सपना
कानून हुआ अपना अपना
६-
व्याकुल कोशी है दौड़ रही
रुकने का ठौर तलाश रही
जब नई न कोई राह मिली
तो गांव, नगर की ओर चली
भटके लाखों जन द्वार द्वार
सपने बिखरे है तार तार
७-
घर द्वार बहा, परिवार बहा
सपनों का भी संसार बहा
कोई अनाथ शिशु बिलख रहा
बूढा भी कोई फफक रहा
माताएं पुत्र-विहीन हुई
वत्सलता ममता दीन हुई
८-
फिर भी लहरों को चीर चीर
जीने की चाह लिए , अधीर
पल पल बरसाते नयन-नीर
अन्तर में धारे गहनपीर
बचकर आया जो बिलख रहा
खुद बचा, मगर परिवार बहा
९-
कंधे पर बकरी को डाले
बच्चे को लटका लिया गले
पानी में पौरुष-अग्नि जला
जलमग्न भूमि पर बढ़ा चला
मानव का जय-अभियान धन्य
मानव, स्रष्टा का सुत अनन्य
१०
गिरते को फिर से लिया थाम
पूछा ना मजहब, जाति, नाम
सोदर तो नहीं, मगर, बढकर
रोते भाई का हाथ पकड़
गदगद हो गले लगाते है
हम उनको शीश नवाते है
११
तटबन्ध नहीं टूटा था यह
भगवान् नहीं रुठा था यह
कोशी का दोष नहीं कोई
किस्मत थी कहीं नहीं सोई
उनका ही है यह घोर पाप
जो करते अब मिथ्या-विलाप
१२
अच्छा ! न अभी कुछ बोलेंगे
पर, कभी तो मुह को खोलेंगे
जो शत्रु बना मानव का, जल
किसके पापों का था प्रतिफल
देना होगा उत्तर इसका
वह कौन ? पाप था यह किसका
१३
जब बधने को व्याकुल कोशी
बजती थी तब उनकी वंशी
मन बहलाते थे चाटुकार
कहते थे- है शुभ समाचार
एहसास हो रहा था सुखप्रद
मौसम लगता सब ओर सुखद
१४-
जब जन-सेवा का ध्यान न हो,
कर्तव्यों का खुद भान न हो,
नौकर, मालिक की चाल चले
नौकरशाही फूले व फले
तब लोकतंत्र गल जाता है
नौकर, मालिक बन जाता है
१५.
है धर्म-प्रवर्तक लोकतंत्र
सत्कर्म-प्रवर्तक लोकतंत्र
बन्धुता- प्रवर्तक लोकतंत्र
समता का रक्षक लोकतंत्र
जब लोकतंत्र गल जाता है
नौकर, मालिक बन जाता है

रविवार, 31 अगस्त 2008

मकतब में रोशन है मेरा इश्क...


मुमकिन और मुनासिब मेरा इश्क
मयकश की मस्ती सा मेरा इश्क

मकतब में रोशन है मेरा इश्क
मंजिल का रहबर है मेरा इश्क


----- अरविंद पाण्डेय