गुरुवार, 18 नवंबर 2010

धन्य व्रज-भूमि..धन्य गोपिकाएं ..


तत्सुखे सुखित्वं स्यात: उसके सुख में ही सुख हो : नारद भक्ति सूत्र;

तुमने लिया किसी से और उसको कुछ दिया.
फिर इश्क तो नहीं किया, सौदा किया तुमने.
पाए बिना ही दे गए ग़र इश्क किसी को,
समझो, तुम्हें बस इश्क ही बस इश्क हुआ है..


माता रुक्मिणी श्री कृष्ण से अक्सर ये कहतीं थीं कि हम भी तो आपको असीम प्रेम करती हैं फिर प्रेम का प्रसंग आते ही आप श्री राधा और गोपियों की याद करके आखें सजल कर लेते हैं.. ऐसा क्यों ..हर बार श्री कृष्ण चुप हो जाते.. कुछ कह न पाते..अकथनीय को कहें भी कैसे.. जो समस्त सृष्टि के जीवों को वाणी का दान करते हैं, उनकी वाणी अवरुद्ध सी हो जाती..एक बार देवर्षि नारद, श्री द्वारिकाधीश के अतिथि बने..उनकी उपस्थिति में ही श्री कृष्ण को अचानक भयानक शिरोवेदना हुई.. मस्तक, पीड़ा से फटा सा जा रहा था..राजवैद्य आए..औषधि दी.. कोई लाभ नहीं ..श्री नारद ध्यानस्थ हुए ..फिर माता रुक्मिणी से कहा कि अगर श्री कृष्ण के किसी प्रेम करने वाले या भक्त के पैरों की धूल मिल जाए और उसे इन द्वारिकाधीश के मस्तक पर मल दिया जाय तो ये पीड़ा शांत होगी अन्यथा नहीं.ये पीड़ा किसी अनन्य प्रेमी की उपेक्षा के कारण हुई है श्री कृष्ण को .. सभी  पटरानियाँ और वहां उपस्थित सभी लोग स्तब्ध थे..देवर्षि ने रुक्मिणी  जी से कहा , आप तो इन्हें अनन्य प्रेम करतीं हैं..आपकी भक्ति तो विश्व-विख्यात है..आप अपने चरणों की धूल दीजिये तो इन्हें शान्ति मिले..रुक्मिणी जी ने कहा, मैं , प्रेयसी, भक्त, समर्पित, अपने पैरों की धूल दू तो सीधा नरक का द्वार दिख रहा मुझे..मुझसे ये महापाप न होगा...इसी तरह सभी ने वह ''महापाप'' करने से इनकार कर दिया..नारद ने कहा , अब एक ही  मार्ग दिख रहा...व्रज का मार्ग.. वे व्रज गए और यही प्रस्ताव राधा रानी और गोपियों के सामने रखा..राधा जी और गोपियों को तो लगा कि प्राण ही निकल जायेगे. उन्हें शिरो-वेदना..अभी तक शांत नहीं...कहा , देवर्षि , आपने इतनी देर क्यो की ? तुरंत आते..राधा जी ने गोपियों के पैरों धूल इकट्ठी करनी शुरू की.सभी गोपियों ने अपने पैरों की धूल दी.. उनके चरण-रज से नारद की झोली  भर गई..फिर सभी ने कहा , नारद जी, आप ले जाइए .फिर कभी उन्हें वेदना हो तो उसकी चिकित्सा के लिए भी हम अभी से दे रही हैं..हम जानती हैं कि उनके मस्तक पर हमारे पैरो धूल लगेगी तो हमें महापातक होगा..वे तो अनंत , सनातन,परमात्मा हैं..किन्तु हम नरक का कष्ट भोगने के लिए तैयार हैं अनंत काल तक.. उन्हें वेदना हो एक क्षण भी, ये तो हमें उस नरक से भी अधिक वेदानादायी है..नारद आए.. वह धूल की झोली लिए..आंसू बहाते..प्रेम-पारावार में अभिषिक्त हो रोमांचित..द्वारिकाधीश ने उस धूल का एक कण मस्तक पर लगाया ..उनकी देह  प्रेम-पुलकित हो रही थी .. प्रेमाश्रुओं से वक्षस्थल का अभिषेक हो रहा था..बार बार उस धूल का स्पर्श कर वे परमानन्दस्वरूप अनंत , स्वयं आनंदित हो रहे थे.. रुक्मिणी और अन्य सभी उस दृश्य को देख अपूर्व आनंद में मग्न थे .. रुक्मिणी को उनके प्रश्न का उत्तर देने के लिए उन व्रजराजकिशोर,  द्वारिकाधीश ने जो स्वयं को पीड़ित किया, उसका स्मरण कर वे लज्जित हो रहीं थीं..धन्य व्रज-भूमि..धन्य गोपिकाएं .. धन्य श्री शुकदेव जिन्होंने इस भागवत रूपी अमृत से संसार को शाश्वत काल के लिए भिगो दिया..
----अरविंद पाण्डेय

8 टिप्‍पणियां:

  1. Thanks for sharing with such a wonderful religious story that is worth reading times and again and emulating in our practical life to have godly bliss.

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  2. परम आदरणीय सर , माता रुक्मिणी एवं भगवान श्री कृष्ण की बहुत ही सुंदर रचना आपने लिखी हैं ....सादर अभिवादन के साथ !!!!!1

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  3. I like & love it very nice one .you
    are very creative & great,sir

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  4. thanks for sharing such kind of holy subjects among all.I have no words but this is a great effort to spread the glory of serene love for Divine....

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  5. एक बार पुनः इस कहानी की याद दिलाने के लिए आपका धन्यवाद। करीब ३ साल पहले इस कहानी को मैंने पढ़ा था, भगवती शरण मिश्र की पुस्तक "पुरुषोत्तम" में।

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  6. Deepak
    change
    जय श्री राधे कृष्ण *
    1. हमे चिंता नहीं उनकी ......!!!!
    पर उन्हें चिंता हमारी है ......!!
    हमारे प्राणों का रक्षक ......!!!
    सुदरसन चक्र धारी है ......!!

    २. जिसको देखो वो कहता है ....!!
    "I want peace"।
    पर जब तक "I" है ( यानि "मै
    और जब तक "Want" है ॥!!! ( यानि "चाह
    तो " peace" कैसे मिलेगी ...!!!

    ३. भगवान् पर किसी का जोर नहीं है ॥!
    भगवान किसी की साधना के बल पर नहीं मिलते ॥!!
    भगवान् किसी की भजन के बल पर नहीं मिलते ॥!!
    भगवान् किसी को रुपये पैसे के बल पर नहीं मिलते ॥!!
    भगवान् जब भी प्राप्त होंगे तो वो अपनी कृपा से ही तुमको मिलेंगे ॥!!

    ४. याद रखना मेरे बांके बिहारी तो हम सब को बुला रहे है !!
    लेकिन बंसी सब को सुनायी नहीं दे रही है !!
    क्यों की हम सब बहरे हो गए है !!
    संसार का इतना शोर कानो मै पड़ा हुआ है !!
    जब संसार का शोरसुनायी देना बंद होगा !!
    तो उस समय जो सुनायी देगा वो मेरे बनके बिहारी जी की बंसी ही होगी !!!!
    *प्रेम से कहिये श्री राधे *
    *माता - पिता की जय * गुरु देव महाराज की जय * श्री कृष्ण चन्द्र भगवान की जय *
    जय जय श्री राधे

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  7. अरविन्द भाई, कृष्ण जीवन के अनमोल वृतांतों में से एक और वृतांत को आपने इतने सहज और सरल तरीके से हमसभी के बीच रखा जो प्रेम के वास्तविक स्वरुप को उजागर कर हम सभी को धन्य करने के लिए सम्पूर्ण है. सच ही तो है की प्रेम स्वयं के पीड़ा एवं कष्ट की परवाह किये बिना अपने प्रेयसी/प्रीतम के कष्ट एवं पीड़ा के प्रति ज्यादा संवेदनशील होता है.

    आज प्रेम को एक कलुषित स्वरुप देकर ही लोग यह मान लेते हैं की यही प्रेम का सच्चा स्वरुप है. लेकिन अगर देखा जाये तो प्रेम एक ऐसी अभिव्यक्ति, एहसास और भावना है जो मात्र "देना" जानती है, लेकिन उसके बदले में "लेना" कुछ नहीं चाहती. बलिदान का दूसरा नाम है 'प्रेम'.

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